५ मई को अमेरिकी राजधानी के जाने माने न्यूज़ियम में वौयस ऑफ़ अमेरिका २ घंटे का खास कार्यक्रम आयोजित कर रहा है. इस कार्यक्रम का नाम है वीओए ग्लोबल टाउन हॉल. न्यूज़ियम अमेरिकी संसद और राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस के बिलकुल बीचों बीच है.... टीवी, रेडियो, और इन्टरनेट इन तीनो माध्यमों की मदद से ये कार्यक्रम आप तक पहुंचाया जायेगा.
इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के १०० दिनों की बातचीत होगी और इस बातचीत में शामिल होंगे जाने माने अमेरिकी जानकार, और दुनिया भर के नागरिक.....इन्टरनेट के जरिये आप भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन सकते है.
इस २ घंटे की विशेष प्रस्तुति में हम ओबामा प्रशासन की उपलब्धियों के बारें में बात करेंगे. खास कर ओबामा की एशिया, यूरोप, अफ्रीका, और मध्य पूर्व से जुडी विदेश नीति के बारें में चर्चा होगी....जाहिर है कि इस कार्यक्रम में ओबामा की भारत और पाकिस्तान से जुडी नीति के बारें में भी चर्चा होगी..... और चर्चा होगी वैश्विक अर्थव्यवस्था की....
अगर आप इस कार्यक्रम में शामिल होना चाहते हैं तो अपने सवाल/ टिप्पणियां हमें भेज सकते हैं. इस ब्लॉग के जरिये हमें आप अपने सवाल / टिप्पणियां भेजिये...हमें आप के सवालों का इंतजार है....
Tuesday, April 28, 2009
Monday, April 27, 2009
सपनो का सौदागर
शायद दुनिया की सभी संस्कृतियों में, आम आदमी ये समझता है कि पूरी जिंदगी अच्छे काम करने के बाद, मौत आने पर उसे स्वर्ग मिलता है, अमरीका में बेसबाल मैदान को फील्ड ऑफ़ ड्रीम्स कहा जाता है. ये खेल अमरीका का राष्ट्रिय खेल है. हर अमरीकी का ये सबसे बड़ा सपना रहता है कि काश उसे कम से कम एक बार बेसबाल की बड़ी लीग में खेलने का मौका मिले, पर ये सौभाग्य मुट्ठी भर लोगों को ही नसीब हो पाता है, बाकियों के लिए ये ता ज़िन्दगी एक सपना ही रह जाता है.
लेकिन हाल में, एक बड़े ही सूझ बूझ और तिकड़मी दिमाग वाले इंसान ने, इसका एक ख़ूबसूरत और अनोखा उपाय ढूंढ निकाला. शिकागो शहर में एक ऐतिहासिक बेसबाल स्टेडियम है-रिगली फील्ड, इस मैदान में समय-समय पर अमरीका के चोटी के बेसबाल खिलाड़ियों ने अपने कमाल दिखाए लेकिन समय गुज़रने के साथ ही पुराना स्टेडियम इतिहास के पन्नों में चला गया और एक आदमी ने, उन पन्नो से ही अपनी किस्मत चमकाई है.
उसने शिकागो शहर के बाहर, कुछ ही दूरी पर, ज़मीन के एक प्लाट को खरीदकर उसपर हू-बहु पुराना रिगली स्टेडियम खड़ा किया है. पुराने स्टेडियम जैसा ही रंगरूप, विज्ञापन बोर्ड की ज्यों की त्यों सजावट, बीच में मैदान और दर्शकों के लिए चारों और सीटें तो बनाई हैं लेकिन अब खेल का मैदान , कब्रिस्तान है और सीटें कब्रों में दफ़नाये गए लोगों के प्रियजनो के बैठने के लिये , वहां विज्ञापन लगा है, वो सपना जो आप जीते जी पूरा नहीं कर सके ,उसे यहां पूरा कीजिए. सच तो ये है कि इस रिगली स्टेडियम में, जगह पाने के लिए सारी जगहें बिक चूकी है. क्योकि बेसबाल के दीवाने अपना अन्तिम समय वहां गुज़ारना चाहते हैं ,तो क्या ख़ूब उनका ये सपना तो पूरा हो ही रहा है और इस सपनों के सौदागर की, अपनी अमेरिकन ड्रीम.
लेकिन हाल में, एक बड़े ही सूझ बूझ और तिकड़मी दिमाग वाले इंसान ने, इसका एक ख़ूबसूरत और अनोखा उपाय ढूंढ निकाला. शिकागो शहर में एक ऐतिहासिक बेसबाल स्टेडियम है-रिगली फील्ड, इस मैदान में समय-समय पर अमरीका के चोटी के बेसबाल खिलाड़ियों ने अपने कमाल दिखाए लेकिन समय गुज़रने के साथ ही पुराना स्टेडियम इतिहास के पन्नों में चला गया और एक आदमी ने, उन पन्नो से ही अपनी किस्मत चमकाई है.
उसने शिकागो शहर के बाहर, कुछ ही दूरी पर, ज़मीन के एक प्लाट को खरीदकर उसपर हू-बहु पुराना रिगली स्टेडियम खड़ा किया है. पुराने स्टेडियम जैसा ही रंगरूप, विज्ञापन बोर्ड की ज्यों की त्यों सजावट, बीच में मैदान और दर्शकों के लिए चारों और सीटें तो बनाई हैं लेकिन अब खेल का मैदान , कब्रिस्तान है और सीटें कब्रों में दफ़नाये गए लोगों के प्रियजनो के बैठने के लिये , वहां विज्ञापन लगा है, वो सपना जो आप जीते जी पूरा नहीं कर सके ,उसे यहां पूरा कीजिए. सच तो ये है कि इस रिगली स्टेडियम में, जगह पाने के लिए सारी जगहें बिक चूकी है. क्योकि बेसबाल के दीवाने अपना अन्तिम समय वहां गुज़ारना चाहते हैं ,तो क्या ख़ूब उनका ये सपना तो पूरा हो ही रहा है और इस सपनों के सौदागर की, अपनी अमेरिकन ड्रीम.
Friday, April 10, 2009
न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा
न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा
अफ़सोस है अभी तक किसी ने गांधी फॉर डमीज किताब नहीं लिखी है, जैसे कि आइन्स्टाईन फॉर ड्मीज़ और फ़्रायड फॉर डमीज़ पुस्तकें हैं, इनमें दुनिया की इन महान हस्तियों के बारे में, बड़े ही सरल ढंग से, उनके सिधान्तों और किस क्षेत्र में उनका क्या योगदान है इसका उल्लेख़ मिलता है.
जैसे कि गांधी जी के बारे में कहें तो, उनका अहिंसा का सिद्धांत, सादा जीवन उच्च विचार,सच्चाई का मार्ग अपनाओ, स्वदेश प्रेम, जिससे पर्यावरण पर ज्यादा दबाब न पड़े और भी एक से एक उपयोगी बातें.
लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि गांधी जी के उसूल अब पुराने हो गये हैं, नये ज़माने की नई टेकनालजी के साथ मेल नहीं खाते, परन्तु अब जबकि हिंसा और अत्याचार तेज़ी से बढ़ रहे है और मानसिक तनाव में आकर लोग बेगुनाह लोगों पर गोली पर चलाते हैं, ऐसे समय में गांधी जी के सिधान्तों का महत्त्व और भी बढ़ गया है.
उनका एक सिद्धांत जो उन्होंने बड़े ही दिलचस्प ढंग से तीन बंदरों के माध्यम से दिया है " न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा" इसके पीछे उनका इरादा इंसानियत को और बढाने का था. लेकिन आजकल आई.टी के ज़माने में जब दुनिया के चप्पे-चप्पे पर ,ज़िन्दगी के हर पल पर मीडिया छाया हुआ है,हर छोटे बङे के पास सेल फ़ोन,ब्लैक बेरी, यू ट्यूब,फ़ेस बुक,और टुईटर्स जैसे साधन हैं, इनफ़ारमेशन की गंगा नही समुन्दर बह रहा है,ऐसे माहौल में, गान्धी जी के इस आदर्श न देख बुरा,न सुन बुरा,न बोल बुरा को अपनाना कितना कठिन है. हां ऐसे भी तमाम लोग है वो न्यूज़ के इतने भूख़े हैं कि अफ़वाह भी उनके लिये न्यूज़ है.और हां, पुराने ज़माने की एक कहावत कुछ तो सच नज़र आती है कि दीवारों के भी कान होते है क्योंकि हम भले ही सेल फ़ोन पर बात करें लोग उसे सुन सकते है. जी हां कुछ भी प्राईवेट नहीं है.
अफ़सोस है अभी तक किसी ने गांधी फॉर डमीज किताब नहीं लिखी है, जैसे कि आइन्स्टाईन फॉर ड्मीज़ और फ़्रायड फॉर डमीज़ पुस्तकें हैं, इनमें दुनिया की इन महान हस्तियों के बारे में, बड़े ही सरल ढंग से, उनके सिधान्तों और किस क्षेत्र में उनका क्या योगदान है इसका उल्लेख़ मिलता है.
जैसे कि गांधी जी के बारे में कहें तो, उनका अहिंसा का सिद्धांत, सादा जीवन उच्च विचार,सच्चाई का मार्ग अपनाओ, स्वदेश प्रेम, जिससे पर्यावरण पर ज्यादा दबाब न पड़े और भी एक से एक उपयोगी बातें.
लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि गांधी जी के उसूल अब पुराने हो गये हैं, नये ज़माने की नई टेकनालजी के साथ मेल नहीं खाते, परन्तु अब जबकि हिंसा और अत्याचार तेज़ी से बढ़ रहे है और मानसिक तनाव में आकर लोग बेगुनाह लोगों पर गोली पर चलाते हैं, ऐसे समय में गांधी जी के सिधान्तों का महत्त्व और भी बढ़ गया है.
उनका एक सिद्धांत जो उन्होंने बड़े ही दिलचस्प ढंग से तीन बंदरों के माध्यम से दिया है " न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा" इसके पीछे उनका इरादा इंसानियत को और बढाने का था. लेकिन आजकल आई.टी के ज़माने में जब दुनिया के चप्पे-चप्पे पर ,ज़िन्दगी के हर पल पर मीडिया छाया हुआ है,हर छोटे बङे के पास सेल फ़ोन,ब्लैक बेरी, यू ट्यूब,फ़ेस बुक,और टुईटर्स जैसे साधन हैं, इनफ़ारमेशन की गंगा नही समुन्दर बह रहा है,ऐसे माहौल में, गान्धी जी के इस आदर्श न देख बुरा,न सुन बुरा,न बोल बुरा को अपनाना कितना कठिन है. हां ऐसे भी तमाम लोग है वो न्यूज़ के इतने भूख़े हैं कि अफ़वाह भी उनके लिये न्यूज़ है.और हां, पुराने ज़माने की एक कहावत कुछ तो सच नज़र आती है कि दीवारों के भी कान होते है क्योंकि हम भले ही सेल फ़ोन पर बात करें लोग उसे सुन सकते है. जी हां कुछ भी प्राईवेट नहीं है.
Wednesday, April 1, 2009
साँप सीढी का खेल
कहा जाता है बचपन के दिन सबसे अच्छे होतें हैं पढाई लिखाई खेल कूद और मस्ती. पर इन दिनों जबकि हमारे चारों ओर ही नहीं, पूरे विश्व पर छाए आर्थिक संकट और महंगाई की ही बातें होती हैं, मौज मस्ती भरे दिन लगता है कहीं दूर चले गए हैं,जिसे देखों बैंकों और बड़े बड़े निगमों की बातें करता है लोगों के चेहरे पर घबडाहट बेबसी और उदासी की झलक नज़र आती है.
बैंकों के संकट अगर अपने ही देश तक सीमित हो तो एक अलग बात हो, आईस लैंड की सरकार उसके यहां के बैंकों के फ़ैल होने से गिरी हैं लाटविया भी इसी ओर है और हंगरी इस संकट के कगार पर है. संचार माध्यमों में ऐ.आई जी,और बड़े बड़े कारपोरेशन के सीओज़ की तन्खाओं की ही बातें होती है तो बैंकों के खातों के कुछ और राज़ खोले जाते हैं .सेंक्रामेंटो जैसा ख़ूबसूरत शहर तम्बुओं का बसेरा बन गया है बैंको ने जिनके घर ले लिये हैं वो बेचारे जायें तो कहां जायें.
ऐसे में बचपन में खेले सांप सीढी की बङी याद आती है, इस खेल का कमाल है, इसमें जितनी सीढियां हैं उतने ही सांप फिर भी खेल में शामिल हर कोई ये मानता है की वोह अपने हाथ के कमाल से बाज़ी जीत सकता है. लेकिन अब ऐसा लगता है की आजकल दो क़िस्म की सांप सीढियां हैं एक सामान्य लोगों के लिये जिसमें सीढियां कम है और सांप ज्यादा और बैंको के लिए सीढियां ज्यादा और सांप कम. इसीलिये आर्थिक संकट से थके हारे लोगों को वो पुरानी सांप सीढी का इंतज़ार है कि काश कोई लौटा दे उनके बीते हुये दिन.
कहा जाता है बचपन के दिन सबसे अच्छे होतें हैं पढाई लिखाई खेल कूद और मस्ती. पर इन दिनों जबकि हमारे चारों ओर ही नहीं, पूरे विश्व पर छाए आर्थिक संकट और महंगाई की ही बातें होती हैं, मौज मस्ती भरे दिन लगता है कहीं दूर चले गए हैं,जिसे देखों बैंकों और बड़े बड़े निगमों की बातें करता है लोगों के चेहरे पर घबडाहट बेबसी और उदासी की झलक नज़र आती है.
बैंकों के संकट अगर अपने ही देश तक सीमित हो तो एक अलग बात हो, आईस लैंड की सरकार उसके यहां के बैंकों के फ़ैल होने से गिरी हैं लाटविया भी इसी ओर है और हंगरी इस संकट के कगार पर है. संचार माध्यमों में ऐ.आई जी,और बड़े बड़े कारपोरेशन के सीओज़ की तन्खाओं की ही बातें होती है तो बैंकों के खातों के कुछ और राज़ खोले जाते हैं .सेंक्रामेंटो जैसा ख़ूबसूरत शहर तम्बुओं का बसेरा बन गया है बैंको ने जिनके घर ले लिये हैं वो बेचारे जायें तो कहां जायें.
ऐसे में बचपन में खेले सांप सीढी की बङी याद आती है, इस खेल का कमाल है, इसमें जितनी सीढियां हैं उतने ही सांप फिर भी खेल में शामिल हर कोई ये मानता है की वोह अपने हाथ के कमाल से बाज़ी जीत सकता है. लेकिन अब ऐसा लगता है की आजकल दो क़िस्म की सांप सीढियां हैं एक सामान्य लोगों के लिये जिसमें सीढियां कम है और सांप ज्यादा और बैंको के लिए सीढियां ज्यादा और सांप कम. इसीलिये आर्थिक संकट से थके हारे लोगों को वो पुरानी सांप सीढी का इंतज़ार है कि काश कोई लौटा दे उनके बीते हुये दिन.
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Tuesday, March 31, 2009
घर आंगन में साग सब्जियों की बहार
वाशिंगटन डी.सी.में, इन दिनों जगह-जगह वेजीटेबल गार्डन लगाने का अभियान जारी है. मंदी के दौर में सरकारी महकमें भी परिवारों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वे अपने घर में साग सब्जियां उगाकर पैसों की बचत तो करें ही, मोटापे से जुङे फास्ट फ़ूड को छोड़कर ओर्गानिक खानपान की ओर भी ध्यान दें. खेतीबाड़ी विशेषज्ञ लोगों को मिट्टी के उपयोग से लेकर बीज और पौधों की देखरेख की जानकारी दे रहे हैं.
मंदी के दौर में लोगों की सोंच में आया ये बदलाव नया नही है. १९३० की, महामंदी के दौर में उस समय की प्रथम महिला एलनौर रोज़वेल्ट ने ऐसा ही आन्दोलन चलाया था. उस समय उन्होंने व्हाइट हाउस के परिसर में वेजीटेबल गार्डन लगाया था और लोगों को प्रेरित किया था कि वे मुशकिल के दौर में सब्जियां और फल अपने घर में उगाकर कुछ तो राहत महसूस कर सकते हैं.
स्वर्गीय राष्ट्रपति केनेडी के समय में जेक्लीन केनेडी ने व्हाइट हाउस में रोज़ गार्डन लगाकर उसकी खूबसूरती को बढाया, ये सांस्कृतिक आयोजनों और मेहमान नवाज़ी का एक ख़ूबसूरत मंच बना. लेकिन उनके बाद लेडी बर्ड जौनसन ने व्हाइट की इस खूबसूरती को शहर तक ले जाने के लिए जगह जगह पेड़ लगवाये, शहर की हरियाली बढाई और फूलों के बागीचे भी लगवाये.
और अब प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने वक्त की मांग को देखते हुए व्हाइट हाउस में साग सब्ज़ियां उगाने का अभियान फ़िर से शुरू किया हैं ,स्कूल के छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए व्हाइट हाउस के दरवाज़े खोल दिए हैं विभिन्न स्कूलों के छात्र सब्जियां उगाने की ट्रेनिंग तो ले ही रहे हैं साथ में उन्हें पौष्टिक खाने की उपयोगिता के बारे में भी हिदायते मिलती हैं. ये सारे प्रयास ऐसे समय शुरू किये गये है जबकि यहां भू सप्ताह भी मनाया जा रहा है.
मंदी के दौर में लोगों की सोंच में आया ये बदलाव नया नही है. १९३० की, महामंदी के दौर में उस समय की प्रथम महिला एलनौर रोज़वेल्ट ने ऐसा ही आन्दोलन चलाया था. उस समय उन्होंने व्हाइट हाउस के परिसर में वेजीटेबल गार्डन लगाया था और लोगों को प्रेरित किया था कि वे मुशकिल के दौर में सब्जियां और फल अपने घर में उगाकर कुछ तो राहत महसूस कर सकते हैं.
स्वर्गीय राष्ट्रपति केनेडी के समय में जेक्लीन केनेडी ने व्हाइट हाउस में रोज़ गार्डन लगाकर उसकी खूबसूरती को बढाया, ये सांस्कृतिक आयोजनों और मेहमान नवाज़ी का एक ख़ूबसूरत मंच बना. लेकिन उनके बाद लेडी बर्ड जौनसन ने व्हाइट की इस खूबसूरती को शहर तक ले जाने के लिए जगह जगह पेड़ लगवाये, शहर की हरियाली बढाई और फूलों के बागीचे भी लगवाये.
और अब प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने वक्त की मांग को देखते हुए व्हाइट हाउस में साग सब्ज़ियां उगाने का अभियान फ़िर से शुरू किया हैं ,स्कूल के छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए व्हाइट हाउस के दरवाज़े खोल दिए हैं विभिन्न स्कूलों के छात्र सब्जियां उगाने की ट्रेनिंग तो ले ही रहे हैं साथ में उन्हें पौष्टिक खाने की उपयोगिता के बारे में भी हिदायते मिलती हैं. ये सारे प्रयास ऐसे समय शुरू किये गये है जबकि यहां भू सप्ताह भी मनाया जा रहा है.
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सी.वेजीटेबल गार्डन
Monday, March 30, 2009
अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे
अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे
यूं तो लगता है कहने को बहुत कुछ है पर हम कहकर भी कुछ नहीं कहते. हां ये सच है कि पूरी दुनिया में अमरीका जैसा दूसरा देश नहीं पिछले कोई ४० वर्षों में विश्व के हर कोने से आये लोगों का, ये सबसे बड़ा बसेरा है. अमरीका आये लोगों की सबसे बड़ी चाहत होती है उनके बच्चे इस देश के स्कूलों में पढाई करें, तो बहुत से युवा अपने देश में ही बैठे अमरीका के एम.आई.टी. और हारवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में पढने के सपने संजोते रहते है, लेकिन ये तस्वीर सभी की नहीं है, यहां एक बहुत बड़ा तबका ऐसे परिवारों का भी है, जिनकी बढ़ती संख्या का दबाब अमरीका के स्कूलों पर पड़ा है.
यहां मेक्स्सिको से आये ऐसे लोगों की संख़्या लाख़ों में हैं जिनके पास कानूनी कागज़ात नहीं हैं अमरीका आकर उन्होंने अपने परिवार यहीं बसाये हैं, उनके बच्चों को आम स्कूलों में जगह न मिलने पर उनके लिये, चलते फिरते घरों में कक्षायें लगायी जा रहीं हैं. इनमें से बहुत से छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती. अमरीकी स्कूलों में भेदभाव की कोई जगह नहीं है, पढाई का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिये इन अप्रवासी छात्रों को क्लास के अन्य क्षात्रों के स्तर पर कैसे लाया जाये, अपने आप में ये एक बड़ी समस्या बन गई है.
इस पर भी बहुत से स्कूलों में अध्यापक एक साथ दो क्लास लेते हैं, एक अंग्रेजी माध्यम में और दूसरा अंग्रेजी न जानने वालों को शुरू से अंग्रेजी सिखाने के लिये. बहुत से स्कूलों ने अनेक अध्यापक फिलिपीन,मेक्सिको और भारत से बुलाऐ हैं, ताकि, उन्हें जो कुछ भी पढाया जा रहा है अंग्रेजी के साथ साथ अपनी भाषा में भी सीख कर वो जल्दी से आगे बढ़ सकें, स्कूलों में कुछ ऐसे प्रोग्राम भी हैं जो इन छात्रों को इसप्रकार शिक्षा दे रहें है ताकि वो पाठ्यक्रम के साथ चलें, ऐसे में होता ये है कि जब तक नेशनल परीक्षाओं का समय आता है उनकी अंग्रेजी
इतनी अच्छी हो जाती है कि वे परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में पास करने में सफ़ल रहते हैं.
एक समय पीस कोर से लौटे युवा और वयस्क भी, इन नये अप्रवासी परिवारों की, इस समस्या को दूर करने में वरदान साबित हो रहे हैं. हां इस बात को भी झुटलाया नहीं जा सकता कि अमरीकी स्कूलों के इन लाजवाब प्रयासों के बाद भी शुरुवात से ही अंग्रेजी माध्यम से आये और बाद में इस माध्यम को सीख कर आगे की पढाई करने वाले अप्रवासी छात्रों के प्रति उनकी अपनी मानसिकता के साथ ही समाज के तथाकथित वर्गभेद के प्रति संकुचित विशवास रखने वालों की मानसिकता में भी अंतर साफ नज़र आता है. इस सबके बावजूद अमरीकी अध्यापकों का भी, ये प्रयास जारी है कि ऐसे छात्रों को स्पोर्टस,कला और संगीत में आगे बढ़ाकर, उनकी अपनी मानसिकता वे दूर कर दें।
यूं तो लगता है कहने को बहुत कुछ है पर हम कहकर भी कुछ नहीं कहते. हां ये सच है कि पूरी दुनिया में अमरीका जैसा दूसरा देश नहीं पिछले कोई ४० वर्षों में विश्व के हर कोने से आये लोगों का, ये सबसे बड़ा बसेरा है. अमरीका आये लोगों की सबसे बड़ी चाहत होती है उनके बच्चे इस देश के स्कूलों में पढाई करें, तो बहुत से युवा अपने देश में ही बैठे अमरीका के एम.आई.टी. और हारवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में पढने के सपने संजोते रहते है, लेकिन ये तस्वीर सभी की नहीं है, यहां एक बहुत बड़ा तबका ऐसे परिवारों का भी है, जिनकी बढ़ती संख्या का दबाब अमरीका के स्कूलों पर पड़ा है.
यहां मेक्स्सिको से आये ऐसे लोगों की संख़्या लाख़ों में हैं जिनके पास कानूनी कागज़ात नहीं हैं अमरीका आकर उन्होंने अपने परिवार यहीं बसाये हैं, उनके बच्चों को आम स्कूलों में जगह न मिलने पर उनके लिये, चलते फिरते घरों में कक्षायें लगायी जा रहीं हैं. इनमें से बहुत से छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती. अमरीकी स्कूलों में भेदभाव की कोई जगह नहीं है, पढाई का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिये इन अप्रवासी छात्रों को क्लास के अन्य क्षात्रों के स्तर पर कैसे लाया जाये, अपने आप में ये एक बड़ी समस्या बन गई है.
इस पर भी बहुत से स्कूलों में अध्यापक एक साथ दो क्लास लेते हैं, एक अंग्रेजी माध्यम में और दूसरा अंग्रेजी न जानने वालों को शुरू से अंग्रेजी सिखाने के लिये. बहुत से स्कूलों ने अनेक अध्यापक फिलिपीन,मेक्सिको और भारत से बुलाऐ हैं, ताकि, उन्हें जो कुछ भी पढाया जा रहा है अंग्रेजी के साथ साथ अपनी भाषा में भी सीख कर वो जल्दी से आगे बढ़ सकें, स्कूलों में कुछ ऐसे प्रोग्राम भी हैं जो इन छात्रों को इसप्रकार शिक्षा दे रहें है ताकि वो पाठ्यक्रम के साथ चलें, ऐसे में होता ये है कि जब तक नेशनल परीक्षाओं का समय आता है उनकी अंग्रेजी
इतनी अच्छी हो जाती है कि वे परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में पास करने में सफ़ल रहते हैं.
एक समय पीस कोर से लौटे युवा और वयस्क भी, इन नये अप्रवासी परिवारों की, इस समस्या को दूर करने में वरदान साबित हो रहे हैं. हां इस बात को भी झुटलाया नहीं जा सकता कि अमरीकी स्कूलों के इन लाजवाब प्रयासों के बाद भी शुरुवात से ही अंग्रेजी माध्यम से आये और बाद में इस माध्यम को सीख कर आगे की पढाई करने वाले अप्रवासी छात्रों के प्रति उनकी अपनी मानसिकता के साथ ही समाज के तथाकथित वर्गभेद के प्रति संकुचित विशवास रखने वालों की मानसिकता में भी अंतर साफ नज़र आता है. इस सबके बावजूद अमरीकी अध्यापकों का भी, ये प्रयास जारी है कि ऐसे छात्रों को स्पोर्टस,कला और संगीत में आगे बढ़ाकर, उनकी अपनी मानसिकता वे दूर कर दें।
Saturday, March 28, 2009
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