Tuesday, April 28, 2009

ओबामा सरकार के १०० दिवस आप के सवाल हमें भेजें

५ मई को अमेरिकी राजधानी के जाने माने न्यूज़ियम में वौयस ऑफ़ अमेरिका २ घंटे का खास कार्यक्रम आयोजित कर रहा है. इस कार्यक्रम का नाम है वीओए ग्लोबल टाउन हॉल. न्यूज़ियम अमेरिकी संसद और राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस के बिलकुल बीचों बीच है.... टीवी, रेडियो, और इन्टरनेट इन तीनो माध्यमों की मदद से ये कार्यक्रम आप तक पहुंचाया जायेगा.

इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के १०० दिनों की बातचीत होगी और इस बातचीत में शामिल होंगे जाने माने अमेरिकी जानकार, और दुनिया भर के नागरिक.....इन्टरनेट के जरिये आप भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन सकते है.

इस २ घंटे की विशेष प्रस्तुति में हम ओबामा प्रशासन की उपलब्धियों के बारें में बात करेंगे. खास कर ओबामा की एशिया, यूरोप, अफ्रीका, और मध्य पूर्व से जुडी विदेश नीति के बारें में चर्चा होगी....जाहिर है कि इस कार्यक्रम में ओबामा की भारत और पाकिस्तान से जुडी नीति के बारें में भी चर्चा होगी..... और चर्चा होगी वैश्विक अर्थव्यवस्था की....
अगर आप इस कार्यक्रम में शामिल होना चाहते हैं तो अपने सवाल/ टिप्पणियां हमें भेज सकते हैं. इस ब्लॉग के जरिये हमें आप अपने सवाल / टिप्पणियां भेजिये...हमें आप के सवालों का इंतजार है....

Monday, April 27, 2009

सपनो का सौदागर

शायद दुनिया की सभी संस्कृतियों में, आम आदमी ये समझता है कि पूरी जिंदगी अच्छे काम करने के बाद, मौत आने पर उसे स्वर्ग मिलता है, अमरीका में बेसबाल मैदान को फील्ड ऑफ़ ड्रीम्स कहा जाता है. ये खेल अमरीका का राष्ट्रिय खेल है. हर अमरीकी का ये सबसे बड़ा सपना रहता है कि काश उसे कम से कम एक बार बेसबाल की बड़ी लीग में खेलने का मौका मिले, पर ये सौभाग्य मुट्ठी भर लोगों को ही नसीब हो पाता है, बाकियों के लिए ये ता ज़िन्दगी एक सपना ही रह जाता है.

लेकिन हाल में, एक बड़े ही सूझ बूझ और तिकड़मी दिमाग वाले इंसान ने, इसका एक ख़ूबसूरत और अनोखा उपाय ढूंढ निकाला. शिकागो शहर में एक ऐतिहासिक बेसबाल स्टेडियम है-रिगली फील्ड, इस मैदान में समय-समय पर अमरीका के चोटी के बेसबाल खिलाड़ियों ने अपने कमाल दिखाए लेकिन समय गुज़रने के साथ ही पुराना स्टेडियम इतिहास के पन्नों में चला गया और एक आदमी ने, उन पन्नो से ही अपनी किस्मत चमकाई है.
उसने शिकागो शहर के बाहर, कुछ ही दूरी पर, ज़मीन के एक प्लाट को खरीदकर उसपर हू-बहु पुराना रिगली स्टेडियम खड़ा किया है. पुराने स्टेडियम जैसा ही रंगरूप, विज्ञापन बोर्ड की ज्यों की त्यों सजावट, बीच में मैदान और दर्शकों के लिए चारों और सीटें तो बनाई हैं लेकिन अब खेल का मैदान , कब्रिस्तान है और सीटें कब्रों में दफ़नाये गए लोगों के प्रियजनो के बैठने के लिये , वहां विज्ञापन लगा है, वो सपना जो आप जीते जी पूरा नहीं कर सके ,उसे यहां पूरा कीजिए. सच तो ये है कि इस रिगली स्टेडियम में, जगह पाने के लिए सारी जगहें बिक चूकी है. क्योकि बेसबाल के दीवाने अपना अन्तिम समय वहां गुज़ारना चाहते हैं ,तो क्या ख़ूब उनका ये सपना तो पूरा हो ही रहा है और इस सपनों के सौदागर की, अपनी अमेरिकन ड्रीम.

Friday, April 10, 2009

न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा

न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा

अफ़सोस है अभी तक किसी ने गांधी फॉर डमीज किताब नहीं लिखी है, जैसे कि आइन्स्टाईन फॉर ड्मीज़ और फ़्रायड फॉर डमीज़ पुस्तकें हैं, इनमें दुनिया की इन महान हस्तियों के बारे में, बड़े ही सरल ढंग से, उनके सिधान्तों और किस क्षेत्र में उनका क्या योगदान है इसका उल्लेख़ मिलता है.

जैसे कि गांधी जी के बारे में कहें तो, उनका अहिंसा का सिद्धांत, सादा जीवन उच्च विचार,सच्चाई का मार्ग अपनाओ, स्वदेश प्रेम, जिससे पर्यावरण पर ज्यादा दबाब न पड़े और भी एक से एक उपयोगी बातें.

लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि गांधी जी के उसूल अब पुराने हो गये हैं, नये ज़माने की नई टेकनालजी के साथ मेल नहीं खाते, परन्तु अब जबकि हिंसा और अत्याचार तेज़ी से बढ़ रहे है और मानसिक तनाव में आकर लोग बेगुनाह लोगों पर गोली पर चलाते हैं, ऐसे समय में गांधी जी के सिधान्तों का महत्त्व और भी बढ़ गया है.

उनका एक सिद्धांत जो उन्होंने बड़े ही दिलचस्प ढंग से तीन बंदरों के माध्यम से दिया है " न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा" इसके पीछे उनका इरादा इंसानियत को और बढाने का था. लेकिन आजकल आई.टी के ज़माने में जब दुनिया के चप्पे-चप्पे पर ,ज़िन्दगी के हर पल पर मीडिया छाया हुआ है,हर छोटे बङे के पास सेल फ़ोन,ब्लैक बेरी, यू ट्यूब,फ़ेस बुक,और टुईटर्स जैसे साधन हैं, इनफ़ारमेशन की गंगा नही समुन्दर बह रहा है,ऐसे माहौल में, गान्धी जी के इस आदर्श न देख बुरा,न सुन बुरा,न बोल बुरा को अपनाना कितना कठिन है. हां ऐसे भी तमाम लोग है वो न्यूज़ के इतने भूख़े हैं कि अफ़वाह भी उनके लिये न्यूज़ है.और हां, पुराने ज़माने की एक कहावत कुछ तो सच नज़र आती है कि दीवारों के भी कान होते है क्योंकि हम भले ही सेल फ़ोन पर बात करें लोग उसे सुन सकते है. जी हां कुछ भी प्राईवेट नहीं है.

Wednesday, April 1, 2009

साँप सीढी का खेल

कहा जाता है बचपन के दिन सबसे अच्छे होतें हैं पढाई लिखाई खेल कूद और मस्ती. पर इन दिनों जबकि हमारे चारों ओर ही नहीं, पूरे विश्व पर छाए आर्थिक संकट और महंगाई की ही बातें होती हैं, मौज मस्ती भरे दिन लगता है कहीं दूर चले गए हैं,जिसे देखों बैंकों और बड़े बड़े निगमों की बातें करता है लोगों के चेहरे पर घबडाहट बेबसी और उदासी की झलक नज़र आती है.
बैंकों के संकट अगर अपने ही देश तक सीमित हो तो एक अलग बात हो, आईस लैंड की सरकार उसके यहां के बैंकों के फ़ैल होने से गिरी हैं लाटविया भी इसी ओर है और हंगरी इस संकट के कगार पर है. संचार माध्यमों में ऐ.आई जी,और बड़े बड़े कारपोरेशन के सीओज़ की तन्खाओं की ही बातें होती है तो बैंकों के खातों के कुछ और राज़ खोले जाते हैं .सेंक्रामेंटो जैसा ख़ूबसूरत शहर तम्बुओं का बसेरा बन गया है बैंको ने जिनके घर ले लिये हैं वो बेचारे जायें तो कहां जायें.

ऐसे में बचपन में खेले सांप सीढी की बङी याद आती है, इस खेल का कमाल है, इसमें जितनी सीढियां हैं उतने ही सांप फिर भी खेल में शामिल हर कोई ये मानता है की वोह अपने हाथ के कमाल से बाज़ी जीत सकता है. लेकिन अब ऐसा लगता है की आजकल दो क़िस्म की सांप सीढियां हैं एक सामान्य लोगों के लिये जिसमें सीढियां कम है और सांप ज्यादा और बैंको के लिए सीढियां ज्यादा और सांप कम. इसीलिये आर्थिक संकट से थके हारे लोगों को वो पुरानी सांप सीढी का इंतज़ार है कि काश कोई लौटा दे उनके बीते हुये दिन.