Tuesday, March 31, 2009

घर आंगन में साग सब्जियों की बहार

वाशिंगटन डी.सी.में, इन दिनों जगह-जगह वेजीटेबल गार्डन लगाने का अभियान जारी है. मंदी के दौर में सरकारी महकमें भी परिवारों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वे अपने घर में साग सब्जियां उगाकर पैसों की बचत तो करें ही, मोटापे से जुङे फास्ट फ़ूड को छोड़कर ओर्गानिक खानपान की ओर भी ध्यान दें. खेतीबाड़ी विशेषज्ञ लोगों को मिट्टी के उपयोग से लेकर बीज और पौधों की देखरेख की जानकारी दे रहे हैं.

मंदी के दौर में लोगों की सोंच में आया ये बदलाव नया नही है. १९३० की, महामंदी के दौर में उस समय की प्रथम महिला एलनौर रोज़वेल्ट ने ऐसा ही आन्दोलन चलाया था. उस समय उन्होंने व्हाइट हाउस के परिसर में वेजीटेबल गार्डन लगाया था और लोगों को प्रेरित किया था कि वे मुशकिल के दौर में सब्जियां और फल अपने घर में उगाकर कुछ तो राहत महसूस कर सकते हैं.

स्वर्गीय राष्ट्रपति केनेडी के समय में जेक्लीन केनेडी ने व्हाइट हाउस में रोज़ गार्डन लगाकर उसकी खूबसूरती को बढाया, ये सांस्कृतिक आयोजनों और मेहमान नवाज़ी का एक ख़ूबसूरत मंच बना. लेकिन उनके बाद लेडी बर्ड जौनसन ने व्हाइट की इस खूबसूरती को शहर तक ले जाने के लिए जगह जगह पेड़ लगवाये, शहर की हरियाली बढाई और फूलों के बागीचे भी लगवाये.

और अब प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने वक्त की मांग को देखते हुए व्हाइट हाउस में साग सब्ज़ियां उगाने का अभियान फ़िर से शुरू किया हैं ,स्कूल के छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए व्हाइट हाउस के दरवाज़े खोल दिए हैं विभिन्न स्कूलों के छात्र सब्जियां उगाने की ट्रेनिंग तो ले ही रहे हैं साथ में उन्हें पौष्टिक खाने की उपयोगिता के बारे में भी हिदायते मिलती हैं. ये सारे प्रयास ऐसे समय शुरू किये गये है जबकि यहां भू सप्ताह भी मनाया जा रहा है.

Monday, March 30, 2009

अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे

अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे

यूं तो लगता है कहने को बहुत कुछ है पर हम कहकर भी कुछ नहीं कहते. हां ये सच है कि पूरी दुनिया में अमरीका जैसा दूसरा देश नहीं पिछले कोई ४० वर्षों में विश्व के हर कोने से आये लोगों का, ये सबसे बड़ा बसेरा है. अमरीका आये लोगों की सबसे बड़ी चाहत होती है उनके बच्चे इस देश के स्कूलों में पढाई करें, तो बहुत से युवा अपने देश में ही बैठे अमरीका के एम.आई.टी. और हारवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में पढने के सपने संजोते रहते है, लेकिन ये तस्वीर सभी की नहीं है, यहां एक बहुत बड़ा तबका ऐसे परिवारों का भी है, जिनकी बढ़ती संख्या का दबाब अमरीका के स्कूलों पर पड़ा है.

यहां मेक्स्सिको से आये ऐसे लोगों की संख़्या लाख़ों में हैं जिनके पास कानूनी कागज़ात नहीं हैं अमरीका आकर उन्होंने अपने परिवार यहीं बसाये हैं, उनके बच्चों को आम स्कूलों में जगह न मिलने पर उनके लिये, चलते फिरते घरों में कक्षायें लगायी जा रहीं हैं. इनमें से बहुत से छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती. अमरीकी स्कूलों में भेदभाव की कोई जगह नहीं है, पढाई का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिये इन अप्रवासी छात्रों को क्लास के अन्य क्षात्रों के स्तर पर कैसे लाया जाये, अपने आप में ये एक बड़ी समस्या बन गई है.

इस पर भी बहुत से स्कूलों में अध्यापक एक साथ दो क्लास लेते हैं, एक अंग्रेजी माध्यम में और दूसरा अंग्रेजी न जानने वालों को शुरू से अंग्रेजी सिखाने के लिये. बहुत से स्कूलों ने अनेक अध्यापक फिलिपीन,मेक्सिको और भारत से बुलाऐ हैं, ताकि, उन्हें जो कुछ भी पढाया जा रहा है अंग्रेजी के साथ साथ अपनी भाषा में भी सीख कर वो जल्दी से आगे बढ़ सकें, स्कूलों में कुछ ऐसे प्रोग्राम भी हैं जो इन छात्रों को इसप्रकार शिक्षा दे रहें है ताकि वो पाठ्यक्रम के साथ चलें, ऐसे में होता ये है कि जब तक नेशनल परीक्षाओं का समय आता है उनकी अंग्रेजी
इतनी अच्छी हो जाती है कि वे परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में पास करने में सफ़ल रहते हैं.

एक समय पीस कोर से लौटे युवा और वयस्क भी, इन नये अप्रवासी परिवारों की, इस समस्या को दूर करने में वरदान साबित हो रहे हैं. हां इस बात को भी झुटलाया नहीं जा सकता कि अमरीकी स्कूलों के इन लाजवाब प्रयासों के बाद भी शुरुवात से ही अंग्रेजी माध्यम से आये और बाद में इस माध्यम को सीख कर आगे की पढाई करने वाले अप्रवासी छात्रों के प्रति उनकी अपनी मानसिकता के साथ ही समाज के तथाकथित वर्गभेद के प्रति संकुचित विशवास रखने वालों की मानसिकता में भी अंतर साफ नज़र आता है. इस सबके बावजूद अमरीकी अध्यापकों का भी, ये प्रयास जारी है कि ऐसे छात्रों को स्पोर्टस,कला और संगीत में आगे बढ़ाकर, उनकी अपनी मानसिकता वे दूर कर दें।

Saturday, March 28, 2009

Friday, March 27, 2009

मुसीबतों के दौर में सिनेमा राहत के कुछ पल

मुसीबतों के दौर में सिनेमा राहत के कुछ पल

अमरीका में जब हम सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो एक अनूठी सच्चाई हमारे सामने आती है कि इस देश की फिल्मों को आवाज़ गीत और संगीत का खुबसूरत जामा उस ज़माने में मिला जब अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी मंदी के दौर में था. बोलती गाती फिल्में इसलिए भी पसंद की गयीं कि लोग जिंदगी की मुसीबतों से जूझ रहे थे. उन्हें कुछ देर भुलाने के लिये लोग सिनेमा जाने लगे. उन्ही दिनों से जुङी एक दिलचस्प कहानी आज अपने आप को फिर दोहरा रही है.

यहां के नॉर्थ केरोलाईना राज्य के शार्लेटविल शहर में एक सिनेमा घर जो उसके मालिक को विरासत में मिला है उन्होंने हाल में बताया कि ये सिनेमाघर उनके दादा जी ने अमरीका की महामंदी के दौर में खोला था उसके बाद बहुत समय तक उसमें फिल्में दिखाई जाती रहीं और फिर एक ऐसा भी समय आया कि इसे बंद कर दिया गया.

अब जबकि समय ने करवट ली है उस इलाके के ज़्यादातर लोगों देश में छाये आर्थिक संकट की मार झेल रहे हैं,शार्लेत्विल के इस सिनेमाघर मालिक ने अरसे से बंद अपने थिएटर को खोल दिया है कि कोई भी व्यक्ति आकर मुफ़्त में फिल्म देख सकता है, उनका मानना है ऐसे कठिन समय में किसी को थोड़ी देर के लिये भी मुश्किलों से निजात मिले इससे बड़ी खुशी क्या मिल सकती है.

Thursday, March 26, 2009

सेक्सोफोन पर चढ़ा भारतीय संगीत का साज़

आज के आई.टी के ज़माने में ऐसा लगता है कि हम भले ही दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों भारतीय संस्कृति की हम पूरी जानकारी रखते है. लेकिन इन्फोर्मेशन और नोलेज इन दो शब्दों में अंतर है.

हाल ही में, अमरीका के मशहूर सेक्सोफोन वादक रुद्रेश मंत थापा ने, अपने एक रेडियो इंटरव्यू में कुछ ऐसा ही कहा जिससे ये लगा, भारत के अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सेक्सोफोन वादक कादरी गोपालनाथ के आलावा इस साज़ की उन्हें वैसी जानकारी नहीं है जैसी होनी चाहिए, क्योंकि बम्बई फिल्म उद्योग में आधी सदी से भी ज्यादा समय से ये साज़ भरपूर उपयोग में लाया जा रहा है.

रुद्रेश मंत थापा ने, एक सवाल के जवाब में कहा कि भारत में मुंबई या कहीं और एक अच्छा सेक्सोफोन दूंढ निकालना आसान नहीं. लेकिन अफ़सोस ये है कि रुद्रेश महंत थापा भारत में इस साज़ के बारे में ऐसी बात कह रहे थे जिसके बग़ैर फिल्मी गीत के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता. सच्चाई ये है कि भारत में पश्चिम के इस साज़ का, सबसे पहले प्रयोग १९३० में आर.सी. बोराल ने किया था, वोह भी इसलिए क्योंकि सेक्सोफोन के स्वर, इंसान के स्वर से मिलते हैं. ये साज़ बजता भी है और गाता भी है. आर.सी बोराल ने उस समय के मशहूर गायक के.सी .डे. के साथ गीतों में इस साज़ को प्रयोग किया. अनिल विश्वास ने अपने दर्जनों सदा बहार गीतों की धड़कन इसी साज़ को बनाया -सीने में सुलगते है अरमान आखों में उदासी छाई है -- इस युगल गीत में तीसरी आवाज़ अपने समय के जाने माने वादक, राम सिंह के सेक्सोफोन की है. तो सलिल चौधरी जैसे संगीतकार ने भी इस वाद्य का अपने संगीत में भरपूर प्रयोग किया, उनके गीत जा रे उड़ जारे पंछी बहारों के देश जारे- उनकी बेमिसाल रचना है और तो और सभी उम्र के पसंदीदा गायक जगजीत सिंह का भी सेक्सोफोन ही पसंदीया साज़ हैं.

Wednesday, March 25, 2009

आई पी एल की सर्कस

अब ये बात तो तय है की इंडियन प्रीमियर लीग का दूसरा चरण भारत के बाहर दक्षिण अफ्रीका में खेला जायेगा. पिछले वर्ष जबरदस्त कामयाबी हासिल करने वाली इस लीग के भारत के बाहर जाने के कारन कई फैन्स मायूस है. पाकिस्तान में श्रीलंका की टीम पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद भारत में क्रिकेट मैच से जुडी सुरक्षा को लेकर कई लोग और खिलाडी चिंतित थे, साथ ही भारत में हो रहे आम चुनावों के कारन सुरक्षा के कड़े इन्तजाम करना शायद मुश्किल था लेकिन बावजूद इसके ऐसी सफल लीग का देश से बहार जाना क्रिकेट फैन्स के लिए अच्छा नहीं है. लेकिन उस से भी कई ज्यादा, ये खिलाडियों के लिए और खास कर भारत में क्रिकेट के लिए बिलकुल ही बुरा साबित हो सकता है. आई पी एल के कमिशनर ललित मोदी ने शायद क्रिकेट के खेल से ज्यादा आई पी एल से जुड़े पैसे के बारें में सोचा है और इसी के कारन चाहे कुछ भी हो जाये वह इस लीग को रोकना या फिर थोड़े महीनो बाद भारत में आयोजित करना नहीं चाह रहे.

भारत में आम चुनाव होंगे ये बात तो कई महीनो से लोगों को मालूम है, जाहिर सी बात है की आई पी एल का कार्यक्रम तय करते समय आई पी एल से जुड़े लोगों को भी ये बात मालूम थी की भारत में इसी समय आम चुनाव होंगे. लेकिन आई पी एल की कमिटी इस बात को भूल गयी की दुनिया के सबसे बड़े आम चुनाव के समय सुरक्षा कर्मियों की जरूरत होगी और ऐसे समय में क्रिकेट में मैच के लिए सुरक्षा देना असंभव होगा. क्या आई पी एल का आयोजन निर्धारित समय से कुछ महीने बाद नहीं हो सकता?

दूसरी बात ये है की दक्षिण अफ्रीका के मैदान, वहां के पिचेस, वहां का माहौल, वहां का मौसम, ये सभी चीजे भारत से बिलकुल अलग है और शायद इन सभी चीजों का खेल पर असर हो सकता है. बल्लेबाजों से ज्यादा वहां की परिस्थिति गेंदबाजों के लिए मदतगार साबित हो सकती है जिस के कारन आई पी एल का मजा कम हो सकता है.

पहले चरण में आई पी एल के मुकाबलों में जादुई माहौल था, जोशीले फैन्स, नाच गाना, चीयर लीडर्स, बॉलीवुड स्टार्स इन सभी चीजों के कारन क्रिकेट का मजा दुगना हो गया. अब दक्षिण अफ्रीका में न तो आम भारतीय फैन्स होंगे और नहीं ही भारत जैसा जोशीला माहौल.

आई पी एल के ज्यादातर मैच छोटे मैदानों पर खेले गयें जिस के कारन ऐसे लोगों के लिए भी मैदान पर जाकर क्रिकेट देखना संभव हो गया जो आम तौर पर सिर्फ टीवी पर ही क्रिकेट देखते आयें थे. टिकेट भी शायद उतने मंहगे नहीं थे. लेकिन अब दक्षिण अफ्रीका में जाकर क्रिकेट देखना आम भारतीय फैन्स के लिए लगभग असंभव है.

जहाँ तक भारतीय टीम की बात है, टीम अभी भी न्यू जीलैंड के दौरे पर है और ये दौरा समाप्त होने के बाद टीम के सदस्यों को आई पी एल के लिए तैयार होने के लिए सिर्फ एक हफ्ते का समय मिलेगा और आई पी एल के बाद भी जून में उन्हें तुंरत २०/२० कप में खेलना पड़ेगा. घर से, देश से लगातार दूर रहेना, और फैन्स की अपेक्षाओं को पूरा करने का दबाव भी उनपर रहेगा जिसका असर उनके खेल पर हो सकता है. वहीं भारत के उभरते खिलाडियों को दुनिया के बेहतरीन खिलाडयों से मिलने का और उनके साथ प्रक्टिस करने का उनसे सिखने का सुनहरा मौका गवाना पड़ेगा.

भारत से दूर रहने वाले मेरे जैसे क्रिकेट फैन्स के लिए ये अभी भी समझना मुश्किल है की भारतीय लीग दक्षिण अफ्रीका में क्यों हो रही है? अमेरिका में खेले जाने वाले किसी भी व्यवसायीक खेल की लीग को कभी भी दुसरे देश में आयोजित नहीं किया जायेगा. आई सी सी के साथ मिलकर आई पी एल इस स्पर्धा के लिए नया समय निश्चित कर सकता था और दुनिया को भी दिखा सकता था की भारत में ऐसे माहौल में सुरक्षित तौर पर इतनी बड़ी स्पर्धा का आयोजन मुमकिन है.

आई पी एल एक सर्कस की तरह हो गया है, जिस में राजनेता अपना खेल खेल रहे हैं, तो आयोजक और टीम के मालिकों को सिर्फ अपना खेल खेलने में और पैसे बनाने में दिलचस्पी है. बाकि रहे खिलाडी और फैन्स जिनकी किसको फिकर है ?

Wednesday, March 11, 2009

भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा

कल सिटी ग्रुप के, ये कहने के बाद कि इस वर्ष के पहले दो महीनों में, उसे मुनाफ़ा हुआ है अमरीका ही नहीं पूरे विश्व की अर्थ मंडियों में खुशहाली देखने में आयी जो रेगिस्तान में वर्षा की एक बूंद से कम नहीं है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों के जानकारों का कहना है १९२९ की महामंदी के बाद जबकि ज़्यादातर लोगों का ये मानना था कि अब कभी भी ऐसे दिन नहीं देखने पड़ेंगे पर ऐसा नहीं हुआ.

इस समय अमरीका के हर बड़े शहर में जिन लोगों की नौकरियां चली गयीं है वो तम्बुओं में पनाह लिए हुएं हैं .हर शहर के फ़ूड बैंक खाली हो गये हैं. इस समय राष्ट्रपति ओबामा का सबसे बड़ा लक्ष्य है अमरीका में इंसानों के बीच एक नया समझौता हो, उसी से कठिनाईयों से बाहर आया जा सकता है, एक साथ मिलकर ही इस मंदी के दौर से हम निकल सकते हैं.

ऐसे ही एक समाचार ने अमरीका के करोङों लोगो में तब एक नया उत्साह पैदा किया, जब टेलीविजन पर उन्होंने ये देखा कि डेनवर शहर में एक अच्छे खासे चलते रेस्तंरा ने ये एलान किया कि इस मुश्किल के समय में कोई भी आकर खा सकता हैड उनका मेनू वैसा ही रहेगा जैसा कि हैड हर डिश के दाम भी वही रहेंगे, जिनके पास देने को पैसे नहीं हैं वो खाने के बाद रेस्तंरा के काम में अपनी मदद दे सकते हैं, काम में हाथ बटा सकते हैं. जिनके पास पास हैं वो दे सकते है जो ज़्यादा देकर मदद करना चाहतें हैं वो भी कर सकते हैं लेकिन कोई भी यहां से भूखा नहीं जायेगा. और ये भी कहा गया कि उन्होंने ये कदम गांधी जी के एक वाक्य से प्रेरित होकर उठाया है, गांधी जी ने एक बार कहा था कि लोगों की मुसीबतों को देखते हुए भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा.