Tuesday, April 28, 2009

ओबामा सरकार के १०० दिवस आप के सवाल हमें भेजें

५ मई को अमेरिकी राजधानी के जाने माने न्यूज़ियम में वौयस ऑफ़ अमेरिका २ घंटे का खास कार्यक्रम आयोजित कर रहा है. इस कार्यक्रम का नाम है वीओए ग्लोबल टाउन हॉल. न्यूज़ियम अमेरिकी संसद और राष्ट्रपति निवास व्हाइट हाउस के बिलकुल बीचों बीच है.... टीवी, रेडियो, और इन्टरनेट इन तीनो माध्यमों की मदद से ये कार्यक्रम आप तक पहुंचाया जायेगा.

इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल के १०० दिनों की बातचीत होगी और इस बातचीत में शामिल होंगे जाने माने अमेरिकी जानकार, और दुनिया भर के नागरिक.....इन्टरनेट के जरिये आप भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन सकते है.

इस २ घंटे की विशेष प्रस्तुति में हम ओबामा प्रशासन की उपलब्धियों के बारें में बात करेंगे. खास कर ओबामा की एशिया, यूरोप, अफ्रीका, और मध्य पूर्व से जुडी विदेश नीति के बारें में चर्चा होगी....जाहिर है कि इस कार्यक्रम में ओबामा की भारत और पाकिस्तान से जुडी नीति के बारें में भी चर्चा होगी..... और चर्चा होगी वैश्विक अर्थव्यवस्था की....
अगर आप इस कार्यक्रम में शामिल होना चाहते हैं तो अपने सवाल/ टिप्पणियां हमें भेज सकते हैं. इस ब्लॉग के जरिये हमें आप अपने सवाल / टिप्पणियां भेजिये...हमें आप के सवालों का इंतजार है....

Monday, April 27, 2009

सपनो का सौदागर

शायद दुनिया की सभी संस्कृतियों में, आम आदमी ये समझता है कि पूरी जिंदगी अच्छे काम करने के बाद, मौत आने पर उसे स्वर्ग मिलता है, अमरीका में बेसबाल मैदान को फील्ड ऑफ़ ड्रीम्स कहा जाता है. ये खेल अमरीका का राष्ट्रिय खेल है. हर अमरीकी का ये सबसे बड़ा सपना रहता है कि काश उसे कम से कम एक बार बेसबाल की बड़ी लीग में खेलने का मौका मिले, पर ये सौभाग्य मुट्ठी भर लोगों को ही नसीब हो पाता है, बाकियों के लिए ये ता ज़िन्दगी एक सपना ही रह जाता है.

लेकिन हाल में, एक बड़े ही सूझ बूझ और तिकड़मी दिमाग वाले इंसान ने, इसका एक ख़ूबसूरत और अनोखा उपाय ढूंढ निकाला. शिकागो शहर में एक ऐतिहासिक बेसबाल स्टेडियम है-रिगली फील्ड, इस मैदान में समय-समय पर अमरीका के चोटी के बेसबाल खिलाड़ियों ने अपने कमाल दिखाए लेकिन समय गुज़रने के साथ ही पुराना स्टेडियम इतिहास के पन्नों में चला गया और एक आदमी ने, उन पन्नो से ही अपनी किस्मत चमकाई है.
उसने शिकागो शहर के बाहर, कुछ ही दूरी पर, ज़मीन के एक प्लाट को खरीदकर उसपर हू-बहु पुराना रिगली स्टेडियम खड़ा किया है. पुराने स्टेडियम जैसा ही रंगरूप, विज्ञापन बोर्ड की ज्यों की त्यों सजावट, बीच में मैदान और दर्शकों के लिए चारों और सीटें तो बनाई हैं लेकिन अब खेल का मैदान , कब्रिस्तान है और सीटें कब्रों में दफ़नाये गए लोगों के प्रियजनो के बैठने के लिये , वहां विज्ञापन लगा है, वो सपना जो आप जीते जी पूरा नहीं कर सके ,उसे यहां पूरा कीजिए. सच तो ये है कि इस रिगली स्टेडियम में, जगह पाने के लिए सारी जगहें बिक चूकी है. क्योकि बेसबाल के दीवाने अपना अन्तिम समय वहां गुज़ारना चाहते हैं ,तो क्या ख़ूब उनका ये सपना तो पूरा हो ही रहा है और इस सपनों के सौदागर की, अपनी अमेरिकन ड्रीम.

Friday, April 10, 2009

न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा

न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा

अफ़सोस है अभी तक किसी ने गांधी फॉर डमीज किताब नहीं लिखी है, जैसे कि आइन्स्टाईन फॉर ड्मीज़ और फ़्रायड फॉर डमीज़ पुस्तकें हैं, इनमें दुनिया की इन महान हस्तियों के बारे में, बड़े ही सरल ढंग से, उनके सिधान्तों और किस क्षेत्र में उनका क्या योगदान है इसका उल्लेख़ मिलता है.

जैसे कि गांधी जी के बारे में कहें तो, उनका अहिंसा का सिद्धांत, सादा जीवन उच्च विचार,सच्चाई का मार्ग अपनाओ, स्वदेश प्रेम, जिससे पर्यावरण पर ज्यादा दबाब न पड़े और भी एक से एक उपयोगी बातें.

लेकिन कुछ लोगों का मानना है कि गांधी जी के उसूल अब पुराने हो गये हैं, नये ज़माने की नई टेकनालजी के साथ मेल नहीं खाते, परन्तु अब जबकि हिंसा और अत्याचार तेज़ी से बढ़ रहे है और मानसिक तनाव में आकर लोग बेगुनाह लोगों पर गोली पर चलाते हैं, ऐसे समय में गांधी जी के सिधान्तों का महत्त्व और भी बढ़ गया है.

उनका एक सिद्धांत जो उन्होंने बड़े ही दिलचस्प ढंग से तीन बंदरों के माध्यम से दिया है " न देख बुरा, न सुन बुरा, न बोल बुरा" इसके पीछे उनका इरादा इंसानियत को और बढाने का था. लेकिन आजकल आई.टी के ज़माने में जब दुनिया के चप्पे-चप्पे पर ,ज़िन्दगी के हर पल पर मीडिया छाया हुआ है,हर छोटे बङे के पास सेल फ़ोन,ब्लैक बेरी, यू ट्यूब,फ़ेस बुक,और टुईटर्स जैसे साधन हैं, इनफ़ारमेशन की गंगा नही समुन्दर बह रहा है,ऐसे माहौल में, गान्धी जी के इस आदर्श न देख बुरा,न सुन बुरा,न बोल बुरा को अपनाना कितना कठिन है. हां ऐसे भी तमाम लोग है वो न्यूज़ के इतने भूख़े हैं कि अफ़वाह भी उनके लिये न्यूज़ है.और हां, पुराने ज़माने की एक कहावत कुछ तो सच नज़र आती है कि दीवारों के भी कान होते है क्योंकि हम भले ही सेल फ़ोन पर बात करें लोग उसे सुन सकते है. जी हां कुछ भी प्राईवेट नहीं है.

Wednesday, April 1, 2009

साँप सीढी का खेल

कहा जाता है बचपन के दिन सबसे अच्छे होतें हैं पढाई लिखाई खेल कूद और मस्ती. पर इन दिनों जबकि हमारे चारों ओर ही नहीं, पूरे विश्व पर छाए आर्थिक संकट और महंगाई की ही बातें होती हैं, मौज मस्ती भरे दिन लगता है कहीं दूर चले गए हैं,जिसे देखों बैंकों और बड़े बड़े निगमों की बातें करता है लोगों के चेहरे पर घबडाहट बेबसी और उदासी की झलक नज़र आती है.
बैंकों के संकट अगर अपने ही देश तक सीमित हो तो एक अलग बात हो, आईस लैंड की सरकार उसके यहां के बैंकों के फ़ैल होने से गिरी हैं लाटविया भी इसी ओर है और हंगरी इस संकट के कगार पर है. संचार माध्यमों में ऐ.आई जी,और बड़े बड़े कारपोरेशन के सीओज़ की तन्खाओं की ही बातें होती है तो बैंकों के खातों के कुछ और राज़ खोले जाते हैं .सेंक्रामेंटो जैसा ख़ूबसूरत शहर तम्बुओं का बसेरा बन गया है बैंको ने जिनके घर ले लिये हैं वो बेचारे जायें तो कहां जायें.

ऐसे में बचपन में खेले सांप सीढी की बङी याद आती है, इस खेल का कमाल है, इसमें जितनी सीढियां हैं उतने ही सांप फिर भी खेल में शामिल हर कोई ये मानता है की वोह अपने हाथ के कमाल से बाज़ी जीत सकता है. लेकिन अब ऐसा लगता है की आजकल दो क़िस्म की सांप सीढियां हैं एक सामान्य लोगों के लिये जिसमें सीढियां कम है और सांप ज्यादा और बैंको के लिए सीढियां ज्यादा और सांप कम. इसीलिये आर्थिक संकट से थके हारे लोगों को वो पुरानी सांप सीढी का इंतज़ार है कि काश कोई लौटा दे उनके बीते हुये दिन.

Tuesday, March 31, 2009

घर आंगन में साग सब्जियों की बहार

वाशिंगटन डी.सी.में, इन दिनों जगह-जगह वेजीटेबल गार्डन लगाने का अभियान जारी है. मंदी के दौर में सरकारी महकमें भी परिवारों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वे अपने घर में साग सब्जियां उगाकर पैसों की बचत तो करें ही, मोटापे से जुङे फास्ट फ़ूड को छोड़कर ओर्गानिक खानपान की ओर भी ध्यान दें. खेतीबाड़ी विशेषज्ञ लोगों को मिट्टी के उपयोग से लेकर बीज और पौधों की देखरेख की जानकारी दे रहे हैं.

मंदी के दौर में लोगों की सोंच में आया ये बदलाव नया नही है. १९३० की, महामंदी के दौर में उस समय की प्रथम महिला एलनौर रोज़वेल्ट ने ऐसा ही आन्दोलन चलाया था. उस समय उन्होंने व्हाइट हाउस के परिसर में वेजीटेबल गार्डन लगाया था और लोगों को प्रेरित किया था कि वे मुशकिल के दौर में सब्जियां और फल अपने घर में उगाकर कुछ तो राहत महसूस कर सकते हैं.

स्वर्गीय राष्ट्रपति केनेडी के समय में जेक्लीन केनेडी ने व्हाइट हाउस में रोज़ गार्डन लगाकर उसकी खूबसूरती को बढाया, ये सांस्कृतिक आयोजनों और मेहमान नवाज़ी का एक ख़ूबसूरत मंच बना. लेकिन उनके बाद लेडी बर्ड जौनसन ने व्हाइट की इस खूबसूरती को शहर तक ले जाने के लिए जगह जगह पेड़ लगवाये, शहर की हरियाली बढाई और फूलों के बागीचे भी लगवाये.

और अब प्रथम महिला मिशेल ओबामा ने वक्त की मांग को देखते हुए व्हाइट हाउस में साग सब्ज़ियां उगाने का अभियान फ़िर से शुरू किया हैं ,स्कूल के छात्रों को प्रोत्साहित करने के लिए व्हाइट हाउस के दरवाज़े खोल दिए हैं विभिन्न स्कूलों के छात्र सब्जियां उगाने की ट्रेनिंग तो ले ही रहे हैं साथ में उन्हें पौष्टिक खाने की उपयोगिता के बारे में भी हिदायते मिलती हैं. ये सारे प्रयास ऐसे समय शुरू किये गये है जबकि यहां भू सप्ताह भी मनाया जा रहा है.

Monday, March 30, 2009

अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे

अमरीकी स्कूलों में अप्रवासी बच्चे

यूं तो लगता है कहने को बहुत कुछ है पर हम कहकर भी कुछ नहीं कहते. हां ये सच है कि पूरी दुनिया में अमरीका जैसा दूसरा देश नहीं पिछले कोई ४० वर्षों में विश्व के हर कोने से आये लोगों का, ये सबसे बड़ा बसेरा है. अमरीका आये लोगों की सबसे बड़ी चाहत होती है उनके बच्चे इस देश के स्कूलों में पढाई करें, तो बहुत से युवा अपने देश में ही बैठे अमरीका के एम.आई.टी. और हारवर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में पढने के सपने संजोते रहते है, लेकिन ये तस्वीर सभी की नहीं है, यहां एक बहुत बड़ा तबका ऐसे परिवारों का भी है, जिनकी बढ़ती संख्या का दबाब अमरीका के स्कूलों पर पड़ा है.

यहां मेक्स्सिको से आये ऐसे लोगों की संख़्या लाख़ों में हैं जिनके पास कानूनी कागज़ात नहीं हैं अमरीका आकर उन्होंने अपने परिवार यहीं बसाये हैं, उनके बच्चों को आम स्कूलों में जगह न मिलने पर उनके लिये, चलते फिरते घरों में कक्षायें लगायी जा रहीं हैं. इनमें से बहुत से छात्र ऐसे भी हैं जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती. अमरीकी स्कूलों में भेदभाव की कोई जगह नहीं है, पढाई का माध्यम अंग्रेजी है, इसलिये इन अप्रवासी छात्रों को क्लास के अन्य क्षात्रों के स्तर पर कैसे लाया जाये, अपने आप में ये एक बड़ी समस्या बन गई है.

इस पर भी बहुत से स्कूलों में अध्यापक एक साथ दो क्लास लेते हैं, एक अंग्रेजी माध्यम में और दूसरा अंग्रेजी न जानने वालों को शुरू से अंग्रेजी सिखाने के लिये. बहुत से स्कूलों ने अनेक अध्यापक फिलिपीन,मेक्सिको और भारत से बुलाऐ हैं, ताकि, उन्हें जो कुछ भी पढाया जा रहा है अंग्रेजी के साथ साथ अपनी भाषा में भी सीख कर वो जल्दी से आगे बढ़ सकें, स्कूलों में कुछ ऐसे प्रोग्राम भी हैं जो इन छात्रों को इसप्रकार शिक्षा दे रहें है ताकि वो पाठ्यक्रम के साथ चलें, ऐसे में होता ये है कि जब तक नेशनल परीक्षाओं का समय आता है उनकी अंग्रेजी
इतनी अच्छी हो जाती है कि वे परीक्षा अंग्रेजी माध्यम में पास करने में सफ़ल रहते हैं.

एक समय पीस कोर से लौटे युवा और वयस्क भी, इन नये अप्रवासी परिवारों की, इस समस्या को दूर करने में वरदान साबित हो रहे हैं. हां इस बात को भी झुटलाया नहीं जा सकता कि अमरीकी स्कूलों के इन लाजवाब प्रयासों के बाद भी शुरुवात से ही अंग्रेजी माध्यम से आये और बाद में इस माध्यम को सीख कर आगे की पढाई करने वाले अप्रवासी छात्रों के प्रति उनकी अपनी मानसिकता के साथ ही समाज के तथाकथित वर्गभेद के प्रति संकुचित विशवास रखने वालों की मानसिकता में भी अंतर साफ नज़र आता है. इस सबके बावजूद अमरीकी अध्यापकों का भी, ये प्रयास जारी है कि ऐसे छात्रों को स्पोर्टस,कला और संगीत में आगे बढ़ाकर, उनकी अपनी मानसिकता वे दूर कर दें।

Saturday, March 28, 2009

Friday, March 27, 2009

मुसीबतों के दौर में सिनेमा राहत के कुछ पल

मुसीबतों के दौर में सिनेमा राहत के कुछ पल

अमरीका में जब हम सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो एक अनूठी सच्चाई हमारे सामने आती है कि इस देश की फिल्मों को आवाज़ गीत और संगीत का खुबसूरत जामा उस ज़माने में मिला जब अमरीका दुनिया की सबसे बड़ी मंदी के दौर में था. बोलती गाती फिल्में इसलिए भी पसंद की गयीं कि लोग जिंदगी की मुसीबतों से जूझ रहे थे. उन्हें कुछ देर भुलाने के लिये लोग सिनेमा जाने लगे. उन्ही दिनों से जुङी एक दिलचस्प कहानी आज अपने आप को फिर दोहरा रही है.

यहां के नॉर्थ केरोलाईना राज्य के शार्लेटविल शहर में एक सिनेमा घर जो उसके मालिक को विरासत में मिला है उन्होंने हाल में बताया कि ये सिनेमाघर उनके दादा जी ने अमरीका की महामंदी के दौर में खोला था उसके बाद बहुत समय तक उसमें फिल्में दिखाई जाती रहीं और फिर एक ऐसा भी समय आया कि इसे बंद कर दिया गया.

अब जबकि समय ने करवट ली है उस इलाके के ज़्यादातर लोगों देश में छाये आर्थिक संकट की मार झेल रहे हैं,शार्लेत्विल के इस सिनेमाघर मालिक ने अरसे से बंद अपने थिएटर को खोल दिया है कि कोई भी व्यक्ति आकर मुफ़्त में फिल्म देख सकता है, उनका मानना है ऐसे कठिन समय में किसी को थोड़ी देर के लिये भी मुश्किलों से निजात मिले इससे बड़ी खुशी क्या मिल सकती है.

Thursday, March 26, 2009

सेक्सोफोन पर चढ़ा भारतीय संगीत का साज़

आज के आई.टी के ज़माने में ऐसा लगता है कि हम भले ही दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों भारतीय संस्कृति की हम पूरी जानकारी रखते है. लेकिन इन्फोर्मेशन और नोलेज इन दो शब्दों में अंतर है.

हाल ही में, अमरीका के मशहूर सेक्सोफोन वादक रुद्रेश मंत थापा ने, अपने एक रेडियो इंटरव्यू में कुछ ऐसा ही कहा जिससे ये लगा, भारत के अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सेक्सोफोन वादक कादरी गोपालनाथ के आलावा इस साज़ की उन्हें वैसी जानकारी नहीं है जैसी होनी चाहिए, क्योंकि बम्बई फिल्म उद्योग में आधी सदी से भी ज्यादा समय से ये साज़ भरपूर उपयोग में लाया जा रहा है.

रुद्रेश मंत थापा ने, एक सवाल के जवाब में कहा कि भारत में मुंबई या कहीं और एक अच्छा सेक्सोफोन दूंढ निकालना आसान नहीं. लेकिन अफ़सोस ये है कि रुद्रेश महंत थापा भारत में इस साज़ के बारे में ऐसी बात कह रहे थे जिसके बग़ैर फिल्मी गीत के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता. सच्चाई ये है कि भारत में पश्चिम के इस साज़ का, सबसे पहले प्रयोग १९३० में आर.सी. बोराल ने किया था, वोह भी इसलिए क्योंकि सेक्सोफोन के स्वर, इंसान के स्वर से मिलते हैं. ये साज़ बजता भी है और गाता भी है. आर.सी बोराल ने उस समय के मशहूर गायक के.सी .डे. के साथ गीतों में इस साज़ को प्रयोग किया. अनिल विश्वास ने अपने दर्जनों सदा बहार गीतों की धड़कन इसी साज़ को बनाया -सीने में सुलगते है अरमान आखों में उदासी छाई है -- इस युगल गीत में तीसरी आवाज़ अपने समय के जाने माने वादक, राम सिंह के सेक्सोफोन की है. तो सलिल चौधरी जैसे संगीतकार ने भी इस वाद्य का अपने संगीत में भरपूर प्रयोग किया, उनके गीत जा रे उड़ जारे पंछी बहारों के देश जारे- उनकी बेमिसाल रचना है और तो और सभी उम्र के पसंदीदा गायक जगजीत सिंह का भी सेक्सोफोन ही पसंदीया साज़ हैं.

Wednesday, March 25, 2009

आई पी एल की सर्कस

अब ये बात तो तय है की इंडियन प्रीमियर लीग का दूसरा चरण भारत के बाहर दक्षिण अफ्रीका में खेला जायेगा. पिछले वर्ष जबरदस्त कामयाबी हासिल करने वाली इस लीग के भारत के बाहर जाने के कारन कई फैन्स मायूस है. पाकिस्तान में श्रीलंका की टीम पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद भारत में क्रिकेट मैच से जुडी सुरक्षा को लेकर कई लोग और खिलाडी चिंतित थे, साथ ही भारत में हो रहे आम चुनावों के कारन सुरक्षा के कड़े इन्तजाम करना शायद मुश्किल था लेकिन बावजूद इसके ऐसी सफल लीग का देश से बहार जाना क्रिकेट फैन्स के लिए अच्छा नहीं है. लेकिन उस से भी कई ज्यादा, ये खिलाडियों के लिए और खास कर भारत में क्रिकेट के लिए बिलकुल ही बुरा साबित हो सकता है. आई पी एल के कमिशनर ललित मोदी ने शायद क्रिकेट के खेल से ज्यादा आई पी एल से जुड़े पैसे के बारें में सोचा है और इसी के कारन चाहे कुछ भी हो जाये वह इस लीग को रोकना या फिर थोड़े महीनो बाद भारत में आयोजित करना नहीं चाह रहे.

भारत में आम चुनाव होंगे ये बात तो कई महीनो से लोगों को मालूम है, जाहिर सी बात है की आई पी एल का कार्यक्रम तय करते समय आई पी एल से जुड़े लोगों को भी ये बात मालूम थी की भारत में इसी समय आम चुनाव होंगे. लेकिन आई पी एल की कमिटी इस बात को भूल गयी की दुनिया के सबसे बड़े आम चुनाव के समय सुरक्षा कर्मियों की जरूरत होगी और ऐसे समय में क्रिकेट में मैच के लिए सुरक्षा देना असंभव होगा. क्या आई पी एल का आयोजन निर्धारित समय से कुछ महीने बाद नहीं हो सकता?

दूसरी बात ये है की दक्षिण अफ्रीका के मैदान, वहां के पिचेस, वहां का माहौल, वहां का मौसम, ये सभी चीजे भारत से बिलकुल अलग है और शायद इन सभी चीजों का खेल पर असर हो सकता है. बल्लेबाजों से ज्यादा वहां की परिस्थिति गेंदबाजों के लिए मदतगार साबित हो सकती है जिस के कारन आई पी एल का मजा कम हो सकता है.

पहले चरण में आई पी एल के मुकाबलों में जादुई माहौल था, जोशीले फैन्स, नाच गाना, चीयर लीडर्स, बॉलीवुड स्टार्स इन सभी चीजों के कारन क्रिकेट का मजा दुगना हो गया. अब दक्षिण अफ्रीका में न तो आम भारतीय फैन्स होंगे और नहीं ही भारत जैसा जोशीला माहौल.

आई पी एल के ज्यादातर मैच छोटे मैदानों पर खेले गयें जिस के कारन ऐसे लोगों के लिए भी मैदान पर जाकर क्रिकेट देखना संभव हो गया जो आम तौर पर सिर्फ टीवी पर ही क्रिकेट देखते आयें थे. टिकेट भी शायद उतने मंहगे नहीं थे. लेकिन अब दक्षिण अफ्रीका में जाकर क्रिकेट देखना आम भारतीय फैन्स के लिए लगभग असंभव है.

जहाँ तक भारतीय टीम की बात है, टीम अभी भी न्यू जीलैंड के दौरे पर है और ये दौरा समाप्त होने के बाद टीम के सदस्यों को आई पी एल के लिए तैयार होने के लिए सिर्फ एक हफ्ते का समय मिलेगा और आई पी एल के बाद भी जून में उन्हें तुंरत २०/२० कप में खेलना पड़ेगा. घर से, देश से लगातार दूर रहेना, और फैन्स की अपेक्षाओं को पूरा करने का दबाव भी उनपर रहेगा जिसका असर उनके खेल पर हो सकता है. वहीं भारत के उभरते खिलाडियों को दुनिया के बेहतरीन खिलाडयों से मिलने का और उनके साथ प्रक्टिस करने का उनसे सिखने का सुनहरा मौका गवाना पड़ेगा.

भारत से दूर रहने वाले मेरे जैसे क्रिकेट फैन्स के लिए ये अभी भी समझना मुश्किल है की भारतीय लीग दक्षिण अफ्रीका में क्यों हो रही है? अमेरिका में खेले जाने वाले किसी भी व्यवसायीक खेल की लीग को कभी भी दुसरे देश में आयोजित नहीं किया जायेगा. आई सी सी के साथ मिलकर आई पी एल इस स्पर्धा के लिए नया समय निश्चित कर सकता था और दुनिया को भी दिखा सकता था की भारत में ऐसे माहौल में सुरक्षित तौर पर इतनी बड़ी स्पर्धा का आयोजन मुमकिन है.

आई पी एल एक सर्कस की तरह हो गया है, जिस में राजनेता अपना खेल खेल रहे हैं, तो आयोजक और टीम के मालिकों को सिर्फ अपना खेल खेलने में और पैसे बनाने में दिलचस्पी है. बाकि रहे खिलाडी और फैन्स जिनकी किसको फिकर है ?

Wednesday, March 11, 2009

भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा

कल सिटी ग्रुप के, ये कहने के बाद कि इस वर्ष के पहले दो महीनों में, उसे मुनाफ़ा हुआ है अमरीका ही नहीं पूरे विश्व की अर्थ मंडियों में खुशहाली देखने में आयी जो रेगिस्तान में वर्षा की एक बूंद से कम नहीं है, लेकिन ऐसी परिस्थितियों के जानकारों का कहना है १९२९ की महामंदी के बाद जबकि ज़्यादातर लोगों का ये मानना था कि अब कभी भी ऐसे दिन नहीं देखने पड़ेंगे पर ऐसा नहीं हुआ.

इस समय अमरीका के हर बड़े शहर में जिन लोगों की नौकरियां चली गयीं है वो तम्बुओं में पनाह लिए हुएं हैं .हर शहर के फ़ूड बैंक खाली हो गये हैं. इस समय राष्ट्रपति ओबामा का सबसे बड़ा लक्ष्य है अमरीका में इंसानों के बीच एक नया समझौता हो, उसी से कठिनाईयों से बाहर आया जा सकता है, एक साथ मिलकर ही इस मंदी के दौर से हम निकल सकते हैं.

ऐसे ही एक समाचार ने अमरीका के करोङों लोगो में तब एक नया उत्साह पैदा किया, जब टेलीविजन पर उन्होंने ये देखा कि डेनवर शहर में एक अच्छे खासे चलते रेस्तंरा ने ये एलान किया कि इस मुश्किल के समय में कोई भी आकर खा सकता हैड उनका मेनू वैसा ही रहेगा जैसा कि हैड हर डिश के दाम भी वही रहेंगे, जिनके पास देने को पैसे नहीं हैं वो खाने के बाद रेस्तंरा के काम में अपनी मदद दे सकते हैं, काम में हाथ बटा सकते हैं. जिनके पास पास हैं वो दे सकते है जो ज़्यादा देकर मदद करना चाहतें हैं वो भी कर सकते हैं लेकिन कोई भी यहां से भूखा नहीं जायेगा. और ये भी कहा गया कि उन्होंने ये कदम गांधी जी के एक वाक्य से प्रेरित होकर उठाया है, गांधी जी ने एक बार कहा था कि लोगों की मुसीबतों को देखते हुए भगवान् को भी यदि इस दुनिया में आना है तो उसे रोटी के रूप में आना होगा.

Thursday, February 26, 2009

आर्थिक संकट के दौर में दरियादिली की मिसाल

सदियों से अमरीका आप्रवासियों का ड्रीमलैंड रहा है, उसका सबसे बड़ा आकर्षण है, यहां की आर्थिक खुशहाली और हरएक को प्राप्त ऐसे सुअवसर कि वो जिस बुलंदी पर पहुंचना चाहता है उसके लिए अपनी किस्मत आज़मा सकता है.सरकार इसमें कोई रुकावट नहीं बनती, लेकिन कुछ करने और पाने की भावना उनमें कड़ी होड़ पैदा कर देती है, जिससे इंसान का एक दूसरे के साथ रिश्ता कमज़ोर पड़ जाता है.

दूसरी और ये भी सच है कि मुश्किल के दौर में ही लोगों की इंसानियत की परख होती है. अमरीका में जब कि लाखों लोगों की नौकरियां चली गईं हैं, लोगों ने अपने घर खो दिए हैं, बहुत से लोग कम खाकर गुज़ारा कर रहें हैं, ऐसे में भी बहुत से अमरीकियों की दरियादिली में कोई कमी नहीं आयी है. ऐसी ही एक मिसाल हाल में ही देखने में आई कि ऐसे कठिन समय में एक महिला की किसी ने कैसे मदद की.

अपने दो बच्चों के साथ एक कस्बे से बड़े शहर में आने पर उसे छोटा- मोटा काम तो मिल गया पर गुज़ारा बड़ी मुश्किल से कर रही थी कि वो काम भी छूट गया. अपनी आख़री तनखाह के पैसे लेकर वो खाने पीने का सामान लेने के लिए उसी परिचित स्टोर में गई जहां वो अक्सर जाया करती थी पर उस दिन उसके दिमाग में बराबर ये घूम रहा था, इन पैसों से कुछ दिन तो गुज़र जायेंगे, लेकिन आँखे और उसकी आवाज़ उसका साथ नहीं दे रहीं थी. और जब भी कोई उससे हाल चाल पूछता, बरबस उसके मुहं पर हकीकत आ जाती कि उसकी नौकरी चली गयी है. बातें करते करते जब वो सामान के साथ काउंटर पर पहुंची और हिसाब होने के बाद उसने पैसे देने के लिए अपना हाथ बढाया, उसे सुनाई दिया कि आपके पैसे तो चुका दिये गये हैं, महिला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था, एक हाथ इशारा कर रहा था वो दरवाज़े के बाहर जा रहे व्यक्ति ने आपकी ग्रोसरी के पैसे अपना हिसाब चुकाते समय ही दे दिये थे. उसके मुहं से निकला कि बुरे समय में भी कुछ लोगों में इंसानियत कायम है....

Monday, February 23, 2009

आर्थिक संकट और अमेरिकी राष्ट्रपति

इन दिनों, यदि हमारे चारों ओर कोई शब्द सुनाई देतें है वो हैं आर्थिक संकट और उससे उबरने के लिए सरकार का प्रोत्साहन कार्यक्रम, ऐसा लगता है इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है.

वर्ष १९२९ में शेयर मार्केट गिरने के बाद अमरीका ही नहीं पूरी दुनिया में मंदी का दौर छा गया था. बैंक, व्यापार, सभी बडी-बडी संस्थाऐ इसकी गिरिफ़्त में थी. लाखों लोग बेरोज़गार हो गए थे. आर्थिक मंदी के इस दौर में फ्रैंकलिन रोज़ावेल्ट अमरीका के राष्ट्रपति बने. उन्होंने फिर से सरकार और जनता के बीच एक नया समझौता करवाया जिसका नाम था "न्यू डील ". उसके तहत सरकार ने स्वयं नई नौकरियां दीं, सोशल सिक्यूरिटी, मैडीकेयर,फ़ूड स्टैम्प जैसे कार्यक्रम शुरू किए गये. ये ऐसे प्रयास थे जिन्होंने सरकार और जनता के बीच एक मज़बूत दीवार का सा काम किया. राष्ट्रपति रोज़वेल्ट का ये मानना था कि सरकार का ये फ़र्ज़ है ऐसे मुशकिल के दौर में वो जनता की मदद करे.हुआ भी ये कि उनकी नई योजना अमरीका की अर्थव्यवस्था में एक नई सुबह लेकर आयी.

लेकिन १९८० के दशक में राष्ट्रपति रेगन की विचारधारा इससे बिल्कुल हटकर थी उनका मानना था हर इंसान को अपनी ज़िन्दगी
अपने प्रयास अपने बल पर जीनी चाहिए, सरकार से सिर्फ़ उसे एक ही आशा रखनी चाहिए और वो है सुरक्षा की कि वो उसकी सुरक्षा का ख्याल रखेगी. और हुआ भी ये कि उस समय तक जारी सामाजिक सहायता के बहुत से कार्यक्रम बंद कर दिए गये.

राष्ट्रपति रेगन, माग्रेट थेचेर की तरह मंङी अर्थव्यवस्था में विश्वास करते थे दोनों का ही मानना था व्यापार को आगे बढ़ने में किसी तरह की कोई रुकावट नहीं आनी चाहिए तभी देश में खुशहाली आती है.

लेकिन अब जो मंदी, वर्ष २००८ में शुरू हुई है उसका प्रभाव एक बार फिर पूरे विश्व में छाया हुआ है करोड़ों लोग, दिन पर दिन बेरोज़गारी और मजबूरियों के संकट से घिरा महसूस कर रहें है. ऐसे मुशकिल दौर में अमरीका के नए राष्ट्रपति बराक ओबामा ने, राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रोज़वेल्ट की ही तरह सरकार और जनता के बीच एक नया समझौता करवाने का प्रयास किया है. सरकारी नौकरियां,नए रोज़गार, जनता के लिए आर्थिक प्रोत्साहाहन योजनाये को अंजाम देने का कठिन मार्ग इसलिए अपनाया है ताकि जनता ने जिस सरकार को चुना है वो आम लोगों की मदद कर सके।

क्या रहमान का ऑस्कर जीतना भारतीय फ़िल्म उद्योग के लिए फायदेमंद साबित होगा ?

ए आर रहमान की जीत की खुशी हम सभी को है खास कर इसलिए भी कि रहमान के संगीत को दुनिया भर में उतना ही पसंद किया गया जितना कि भारत में. अमेरिका में भी स्लम डॉग फ़िल्म के संगीत और गानों को बेहद सराहा गया. हिन्दी न समझने वाले लोगों में भी जय हो गाना उतना ही लोकप्रिय हो गया है जितना कि हिन्दी समझने वालों में. रहमान का ऑस्कर जीतना सही मायने में ऐतिहासिक है क्यों कि पिछले कुछ सालों में लगान जैसी फ़िल्म अन्तिम दौर तक पहुंच कर भी ऑस्कर जीतने में नाकामयाब नहीं रही थी. रहमान के पहले कौस्ट्यूम डिजाइनर भानु अथाय्या को गाँधी फ़िल्म के लिए ऑस्कर पुरस्कार मिला था तो महान निर्देशक सत्यजीत राय को लाइफ टाइम ऑस्कर पुरस्कार से नवाजा गया था. लेकिन अब जब बॉलीवुड और हॉलीवुड के करीब आने की बात हो रही है तो रहमान को फ़िल्म जगत के सबसे बड़े पुरस्कार से नवाजा जाना हम सभी के लिए खुशी की बात है. कुछ जानकारों ने स्लम डॉग के सही मायने में भारतीय फ़िल्म न होने की आलोचना की है, तो कुछ समझते है कि बॉलीवुड को और कहीं पुरस्कार पाने की जरूरत नही है. लेकिन कोई चाहे कुछ भी कहे एक बात तो तय है कि रहमान ने अमेरिका ही नही पूरे विश्व में भारत का नाम और ऊंचा कर दिया है. आम तौर पर बॉलीवुड संगीत से दूर रहने वाले अमेरिकी भी इन दिनों जय हो की धुन गुनगुना रहें हैं. क्या आप को लगता है कि रहमान की इस जीत का फायदा बॉलीवुड को होगा? क्या भविष्य में हम बॉलीवुड और हॉलीवुड द्वारा एक साथ मिलकर बनाई हुई फिल्मों को देखेंगे? क्या आप को लगता है कि भविष्य में और भी भारतीय कलाकार ऑस्कर पुरस्कार को जीत पायेंगे? रहमान ने ये तो सिद्ध कर दिया है की मेहनत और लगन के जोर पर नामुमकिन भी मुमकिन है और इसके लिए आप को हॉलीवुड नही आना पड़ता आप अपने देश में ही अच्छा काम करके ये सब सम्भव है. अब भारतीय फ़िल्म प्रेमी उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले समय में अन्य कोई भारतीय फ़िल्म भी सबसे बेहतरीन फ़िल्म के ऑस्कर को जीत ले....

Friday, February 20, 2009

The H-1B Dilemma

Every year more than 70,000 students come to the United States from India. For seven years now India has been the country which has sent the most international students to the US. Some of these students take loans from local banks back home while some rely on the Graduate Assistantships provided by American Universities.

The equation is simple, finish your education as quickly as possible, take your OPT, which allows you to work for a year without sponsorship and then find a company that will sponsor your H1B. This is a highway to live the American dream, the easiest road to get a degree and then pay your dues and be successful in the land of opportunities.

But due to the economic downturn, fresh graduates, both citizens and non citizens are finding it difficult to get a job. Things are more difficult for immigrants as companies like Microsoft, Google, Ebay, Cisco, and Intel are letting people go. To add to the insecurity, the economic stimulus bill signed by President Obama even includes a provision restricting the hiring of H1 B visa holders. Currently the H-1B cap is 65,000 and almost 40,000 of these visas go to workers/professionals from India. The threat has been downplayed by the US Ambassador to India David Mulford, he mentioned that it is a temporary political move and that the number of H-1B visas is likely to remain intact and they will continue to be heavily used.

But there seems to be a different reality around university campuses and IT companies. Indian students and professionals both are extremely worried about their future in the US. Most of them are also ready to go back if they lose their job. Students have a different story though, for them it won’t be an easy decision as they have to think of how to repay their student loan. Others who bought a house when the market here was good, face a tougher task. If they don’t retain their job, how will they pay the mortgage, and going back is not an option as you lose all the money that you paid as down payment for the house. Just walking away might close the door to the US as your credit history will be tarnished.

There are dilemmas, one- too many, whether going to the US for studies by taking a big loan is worth the trouble? Whether going to the US on an H1B visa is worth the insecurity? Or should they wait and watch…have faith as the market will get back on track soon.