आज के आई.टी के ज़माने में ऐसा लगता है कि हम भले ही दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों भारतीय संस्कृति की हम पूरी जानकारी रखते है. लेकिन इन्फोर्मेशन और नोलेज इन दो शब्दों में अंतर है.
हाल ही में, अमरीका के मशहूर सेक्सोफोन वादक रुद्रेश मंत थापा ने, अपने एक रेडियो इंटरव्यू में कुछ ऐसा ही कहा जिससे ये लगा, भारत के अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त सेक्सोफोन वादक कादरी गोपालनाथ के आलावा इस साज़ की उन्हें वैसी जानकारी नहीं है जैसी होनी चाहिए, क्योंकि बम्बई फिल्म उद्योग में आधी सदी से भी ज्यादा समय से ये साज़ भरपूर उपयोग में लाया जा रहा है.
रुद्रेश मंत थापा ने, एक सवाल के जवाब में कहा कि भारत में मुंबई या कहीं और एक अच्छा सेक्सोफोन दूंढ निकालना आसान नहीं. लेकिन अफ़सोस ये है कि रुद्रेश महंत थापा भारत में इस साज़ के बारे में ऐसी बात कह रहे थे जिसके बग़ैर फिल्मी गीत के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता. सच्चाई ये है कि भारत में पश्चिम के इस साज़ का, सबसे पहले प्रयोग १९३० में आर.सी. बोराल ने किया था, वोह भी इसलिए क्योंकि सेक्सोफोन के स्वर, इंसान के स्वर से मिलते हैं. ये साज़ बजता भी है और गाता भी है. आर.सी बोराल ने उस समय के मशहूर गायक के.सी .डे. के साथ गीतों में इस साज़ को प्रयोग किया. अनिल विश्वास ने अपने दर्जनों सदा बहार गीतों की धड़कन इसी साज़ को बनाया -सीने में सुलगते है अरमान आखों में उदासी छाई है -- इस युगल गीत में तीसरी आवाज़ अपने समय के जाने माने वादक, राम सिंह के सेक्सोफोन की है. तो सलिल चौधरी जैसे संगीतकार ने भी इस वाद्य का अपने संगीत में भरपूर प्रयोग किया, उनके गीत जा रे उड़ जारे पंछी बहारों के देश जारे- उनकी बेमिसाल रचना है और तो और सभी उम्र के पसंदीदा गायक जगजीत सिंह का भी सेक्सोफोन ही पसंदीया साज़ हैं.
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